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नारी से ही नर है, वरना सबकुछ बेघर है
मकान बनाता घर उससे, वरना ये भी झर्झर है…
दुर्गा का अवतार वो, शारदा का सितार जो
लक्ष्मी-पार्वती प्रतीत जिसमें, सौ नर सम एक नार तो
आंगन महकता उससे ही, प्रांगण चहकता उससे ही
वन-उपवन के चंदन सी, शीतलता है उससे ही..
बहु, पत्नी और बेटी वो है, माता भी है त्राता भी वो…
पुर-पुराण का सार है उसमें, पूर्ण है भगवद्गीता भी वो…
वो घड़ी है, वो छड़ी है, अन्याय समकक्ष लड़ी है..
वसन्त बहार सी निर्मल है वो, दुःखो के लिए पतझड़ी है
काश में भी आश है वो, दुष्टों का है नागपाश..
सीता-पद्मिनी सी मर्यादित, छेड़े उसका सर्वनाश…
प्यार है, दुलार है, दुनिया की मजधार है..
सार्वभौम, शक्तिवन्त जो, वो केवल एक नार है..
नारीया: सम्मानम् इति देशस्य सम्मानम्
– गवेश जोगाणी ‘गवेषक’